Thursday, October 21, 2010

शहर

इस शहर में लोग परेशां नज़र आते हैं
साथ इक हंसी की सौगात ले चलो

भाग दौड़ का है आलम इस तरह के
बस पल दो पल की मुलाक़ात ले चलो

उलझे हुए हैं शख्स जाने किस दयार में
जहाँ की हर ख़ुशी के आलमात ले चलो

शायद किसी के रहने को हो दीवार चार
उसके लिए सारी कायनात ले चलो

शायद कहीं धोखा है मक्कार भी कोइ
इसलिए शतरंज की बिसात ले चलो

पर मासूम कौन- कौन मक्कार है
दिल में ये पहचान बाएहतियात ले चलो

शायद कहीं सितम है कहीं दर्द है चहरे पर
तुम हर किसी के दर्द की निजात ले चलो

गर कर सको ऐसा तो कदम धरो यहाँ
वरना इस शहर की बस याद ले चलो।

2 comments:

  1. सार्थक और बेहद खूबसूरत,प्रभावी,उम्दा रचना है..शुभकामनाएं।

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