इस शहर में लोग परेशां नज़र आते हैं
साथ इक हंसी की सौगात ले चलो
भाग दौड़ का है आलम इस तरह के
बस पल दो पल की मुलाक़ात ले चलो
उलझे हुए हैं शख्स जाने किस दयार में
जहाँ की हर ख़ुशी के आलमात ले चलो
शायद किसी के रहने को हो दीवार चार
उसके लिए सारी कायनात ले चलो
शायद कहीं धोखा है मक्कार भी कोइ
इसलिए शतरंज की बिसात ले चलो
पर मासूम कौन- कौन मक्कार है
दिल में ये पहचान बाएहतियात ले चलो
शायद कहीं सितम है कहीं दर्द है चहरे पर
तुम हर किसी के दर्द की निजात ले चलो
गर कर सको ऐसा तो कदम धरो यहाँ
वरना इस शहर की बस याद ले चलो।
सार्थक और बेहद खूबसूरत,प्रभावी,उम्दा रचना है..शुभकामनाएं।
ReplyDeletethanks Sanjay ji
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