Sunday, October 17, 2010

ख्वाहिश 2

लग कर गले तुम्हारे मैं रो लूँ ये ख्वाहिश है
वरना तो मेरी जिंदगी खुशियों की कब्र है

पाया तुम्हें रूबरू पर कह सका कुछ
तुम्हें देखा इक झलक यही दिल को सब्र है

मुहब्बत का किया सजदा खुदा को भूल कर
लोगों ने कहा मुझको ये शख्स काफ़िर है

तेरी वफ़ा में ही तो ये इल्जाम ओढ़े हैं
तुम ही क्यों कह रहे हो ये मेरा कफ़न है

चाहत कभी जो थी वो आज मर गई
अब तो मेरे अहसास कहीं गहरे दफ्न हैं

मैंने तुम्हें बनाया अंजामे जिंदगी
तुम आके देख लो क्या मेरा हश्र है

No comments:

Post a Comment