Friday, October 8, 2010

कृष्ण कहाना चाहता हूँ

मैं खँडहर में इक हंसी बसाना चाहता हूँ
जा रहा जो दूर उसको आज मैं
अपनी ख़ामोशी सुनाना चाहता हूँ
मैं खँडहर में इक हंसी बसाना चाहता हूँ
गम में रोते बीते हैं कितने बरस गिनता रहा
एक पल पागल की तरह खिलखिलाना चाहता हूँ
आज इस संसार में सरे सुदामा ही तो हैं
सबके थके पांव पर दृग जल चढ़ाना चाहता हूँ
दे सकूँ इक हंसी किसी होंठ पर तो मैं सदा
सामने वाले के दो आंसू चुराना चाहता हूँ
हाँ बहुत मुश्किल है एक ईंट बननी प्रेम की
हर सुख दुःख की आग में उसको तपाना चाहता हूँ
माँ न छूटे बच्चों से फिर बँट न जाए कोई घर
प्रेम की इंटों से रिश्तों को बनाना चाहता हूँ
प्रेम का इक सूत जो बांधे समस्त इंसानों को
द्रौपदी के चीर सा उसको बढ़ाना चाहता हूँ
जो हैं अंधे हो रहे नफ़रत के तूफानों में बह
उन्हें प्रेम के बल टिका इक तिनका दिखाना चाहता हूँ
न रहे कोई प्रतिस्पर्धा न रहे कोई दुश्मनी
सबके मन से भेदभाव मैं मिटाना चाहता हूँ
ज्वाला न भड़के नफरतों की जल न जाए फिर जहाँ
ईर्ष्या की चिंगारी को मैं दबाना चाहता हूँ
आज के अँधेरे से कल के उजाले अच्छे थे
फूंक कर सूरज की मैं गर्मी बुझाना चाहता हूँ
या तो सोते ही रहें सब लोग अँधेरा रहे
या तो मैं सद्भावना दीपक जलाना चाहता हूँ
ताजे फूल दोस्ती के बिखर जाते पल ही में
गुलाब का इक फूल किताबों में सुखाना चाहता हूँ
आज है हिंसा यहाँ विनाश के कगार तक
मैं विश्व में बधुत्व का बंधन बंधाना चाहता हूँ
दूर इतने जा बसे कि फिर न मुझ तक लौट आये
दर्द दवा की डोर में पतंग सा उड़ाना चाहता हूँ
लोग वादे करके मुकर जाते हैं इस दौर में
मैं बिना किये ही हर वादा निभाना चाहता हूँ
एक दिल में घर नहीं मैं चाहता अमीर होना
सब के दिल में अपने लिए इक घराना चाहता हूँ
जुल्म के खिलाफ हर आवाज़ हो बुलंद अतः
कमजोर से हर मन से मैं डर भगाना चाहता हूँ
गर मेरे सा कृष्ण युद्ध में न उतरे आज तो
अर्जुन को गीता के दरिया में बहाना चाहता हूँ
वक्त रूठता है मुझसे घड़ी-घड़ी जाने क्यों
मैं तो हर वक्त ही उसको मनाना चाहता हूँ
कुछ अलग हो इससे आज जो फिजा है चल रही
पतझड़ के मौसम में मैं बहार लाना चाहता हूँ
इतना सब जब कर सकूँ तो बैठकर किसी छाँव में
सुख चैन की मैं वंशी बजाना चाहता हूँ
द्वापर के कृष्ण को जितना भी सुना है मैंने
अब भले कलयुग का पर कृष्ण कहाना चाहता हूँ।

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