Wednesday, September 8, 2010

विरही की गाथा

जीवन में निविड़ सा एकाकीपन
खलता है उस पथ जहाँ प्रिये
तुम छोड़ गई हो साथ मेरा
अब छूटा हुआ है हाथ मेरा

तुम तारकदल के साथ चली
तो मुझे भी दे गई निशा भली
मैं तुमको ढूंढूं आसमान में
तुम मुझे ढूंढ नहीं सकती
पर मुझे रजनी भली लगती
क्योंकि ये दिवा तुम बिन तपती

जो साक्ष्य बनी थी अग्नि कभी
मेरी तुम्हारी सप्तपदी की
वो अब भी साक्ष्य स्वयं ही है
जो मुझे जलाती रहती है
जब जल- जल कर जब तप- तप कर
मैं भी रह जाऊंगा रज कण
तब तुमसे मिलने आऊँगा
तुम मेरी प्रतीक्षा वहीँ करना
जहां गई छोड़ कर साथ मेरा
जब आऊँ पकड़ना हाथ मेरा

जीवन में निविड़ सा एकाकीपन
खलता है उस पथ जहाँ प्रिये
तुम छोड़ गई हो साथ मेरा
अब छूटा हुआ है हाथ मेरा

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